| वेद | परिचय |
सनातन धर्म में विरोध क्यों ?
यह सही है कि उन्नीसवीं शताब्दी में समाज व्यवस्था और रीति रिवाज़ में परिवर्तन के विरोधियों ने, धर्म के तथाकथित झंडाबरदारों ने, कठमुल्लाओं ने, लकीर के फ़कीरों ने, धर्म की रक्षा के नाम पर सती प्रथा जैसी कुरीतियों के उन्मूलन का विरोध किया था. कुछ पोंगापंथियों ने धर्म को केवल छुआछूत तक ही सीमित कर दिया था, चाहे वह छुआछूत रसोईघर में हो, या वर्ण व्यवस्था में हो, और वे उस में छोटे छोटे परिवर्तन तक का विरोध भी करते रहे थे.
लेकिन हम देखते हैं कि सामाजिक अन्याय और रहनसहन के पिछड़ेपन का विरोध तथाकथित सुधारवादियों से भी बढ़ चढ़ कर उन लोगों ने किया था जो अपने आप को सनातनी मानते थे (जैसे, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, ज्योतिबा फुले, लोकमान्य तिळक,महात्मा गाँधी, मदन मोहन मालवीय, जवाहर लाल नेहरू). उन जैसों के किए ही सनातन धर्म अपने को नया कर पाया था.।परन्तु आज भी यदि इन परिवर्तनों को देखा जाए तो हम पाते हैं की एक विधवा प्रतिदिन सामाजिक तानों का शिकार हो कर सती होती है ,छुआछूत कारोग जातियों वर्णों रसोईघर से निकल कर छोटे -बड़े अधिकारी और ओहदों के रूप में प्रिवर्तीत हो चुका है ऐसे लोग सनातन धर्म के इतिहास में हर चार पाँच दशक बाद परिवर्तन का संदेश ले कर अवतरित होते रहे हैं.परन्तु परिवर्तन की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नही कर पाए मध्य युगों में यह काम संत परंपरा ने किया.गीता में दिए गए वचन ‘संभवामि युगे युगे’ का एक अर्थ यह भी है कि जब भी धर्म को और समाज की जीवन शैली को कुत्सित कर दिया जाएगा तो...भी कुछ नही बदलता जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता
सनातन नियम सनातन ही रहता है
सनत्, सना और सनातन शब्दों के कुछ अर्थ हैं--सदा, हमेशा, नित्य, निरंतर, शाश्वत, स्थिर;दृढ़, स्थिर, निश्चित; पूर्वकालीन, पुराना.
इस अंतिम अर्थ को ले कर सनातन धर्म का अर्थ केवल पुरातन पंथी धर्म मान लिया गया है,और इस के साथ जोड़ दी गई है यह रूढ़ मान्यता कि यह परिवर्तन का विरोधी है. इस के पीछे आधुनिक राजनीति का एक विदेशी शब्द भी है--स्टेटस को, यथास्थिति... जिस के साथ इज़्म यावाद या पंथ या वाद जोड़ देने से परिवर्तन का विरोध अंतर्निहित हो जाता है. नए का यह विरोध राजनीति में व्यवस्था में परिवर्तन की माँग के विरोध से जुड़ जाता है. यही कारण है कि खुले मस्तिष्क वाले सनातन धर्म को हमारे देश में बंद दिमाग़ का, रूढ़िवाद का, पुरातन मोह का,प्रतिक्रियावाद का प्रतीक मान लिया गया है.
वास्तव में ऐसा है नहीं. कोई भी जीवन शैली तभी सनातन रह सकती है जब वह निरंतर परिवर्तनशील हो. इतिहास के पन्नों में झाँकने पर हम पाते हैं कि सनातन धर्म की सनातनताइस बात में निहित है कि वह हमेशा परिवर्तनशील रहा है. नित्य गतिशीलता और निरंतर परिष्कारशीलता ही इस की पहचान हैं. इस सनातन जीवन शैली की सद्भावना यात्रा सदियों से चलती चली आ रही है और यह संभावना भी प्रबल है कि जितनी सदियों से यह यात्रा चलती आ रही है उस से कई गुना सदियों तक और चलती रहेगी...
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